हर वर्ष की दरगाह शरीफ का द्वार सुबह 5:30 बजे खुलकर रात्रि 10 बजे बन्द होगा, इस बीच श्रद्धाल चादर चढ़ाएंगे
इस अवसविभिन्न ग्रुप्स और मुहल्लों से आकर चादर चढ़ाते हैं, स्थानीय हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदाय द्वारा अंतिम दिन भव्य जुलूस के साथ चादर चढ़ाया जाता है जो शहर के विभिन्न मुहल्लों से गुजरता है।
उर्स के आखरी दिन दरगाह परिसर में ही क़व्वाली का भी आयोजन किया जाता है जो तकरीबन दो घंटे की अवधि का और सूफियाना होता है, अंतिम दिन दरगाह पर खादिम ए दरगाह की ओर से मज़ार शरीफ पर चादरपोशी किया जाता है, उसी दिन सामूहिक प्रार्थना भी की जाती है
अंतिम दिन समापन के कारण श्रद्धालुओं के लिए दरगाह का द्वार 12 बजे रात्रि तक खुला रहता है।
दरगाह के खादिम शाह मोहम्मद शमीम के मुताबिक मदारिया सिलसिला के सूफी संत हज़रत मखदूम भीखा शाह सैलानी र. अ. 15 वीं शताब्दी में दरभंगा तशरीफ़ लाए।
उन्होंने दीन का पाठ पढ़ाया, इंसानियत सिखाई, आपसे भाईचारे का संदेश दिया।
उनके हृदय में सभी समुदाय के प्रति समान प्रेम और पीड़ा थी।
आज इसीलिए उनके मज़ार पर फूल और चादर चढ़ाने वालों में हिन्दू मुस्लिम समान रूप से दिखते हैं।
खादिम शमीम के मुताबिक उर्स के दरमियान स्थानीय हिन्दू-मुस्लिम समुदाय के युवाओं, प्रशासन और शांति समिति सदस्यों का हर वर्ष पूरा सहयोग मिलता है जिससे विधि व्यवस्था के मद्देननज़र ऐसी व्यवस्था की जाती है कि उर्स में आए सभी श्रद्धालुओं के जान-माल, इज़्ज़त-आबरू की रक्षा सुनिश्चित करने के साथ साथ दरगाह परिसर व आस पास के क्षेत्र में शांति और भाईचारा कायम रहता है।